झंडा डंडे पोस्टर बैनर वालों की कमाई पीटी । गली मोहल्ले में भी नहीं दिखाई दे रही चुनाव प्रचार की रौनक।
आदित्य सिंह सोलंकी
इंदौर। वैसे आम चुनाव मतदान के लिहाज से लोकतंत्र का एक बड़ा हवन है। जिसका ना सिर्फ आम मतदाता को इंतजार रहता है। ताकि वह अपनी पसंद की सरकार चुन सके ।वही पार्टियों से जुड़े कार्यकर्ता, झंडे,बैनर, पोस्टर बनाने वालों को भी आस रहती है। इन्हीं सब की आस इंदौर में पूरी तरह टूट गई और इंदौर में चुनाव प्रचार बेरंग साबित हो रहा है।
दरअसल कहीं भाजपा का कमाल तो कहीं हाथ का पंजा। शहर में प्रत्याशियों के नाम पर वोट डालने का आह्वान करती घूमती गाड़ियां जगह-जगह बने चुनाव कार्यालय पोस्टर, बैनर , झंडे और यहां वहां होते कार्यालय पर आयोजन इंदौर में बेरंग हो गए। कांग्रेस प्रत्याशी के मैदान से हाथ खींचते ही बीजेपी की चुनाव जीतने की आस तो मजबूत हुई, लेकिन पार्टियों से जुड़े कार्यकर्ताओं के हाथ निराशा ही लगी । यहां सबसे बड़ा वर्ग झंडा, बैनर ,पोस्टर बनाकर अपनी रोजी-रोटी के इंतजाम करने वालों का भी है। जो बुरी तरह प्रभावित हुआ है। साथ हो वह कार्यकर्ता भी है जो प्रतिबद्ध रूप से अपनी अपनी पार्टियों की जीत के लिए दिन-रात एक कर देता है। अब ऐसा कुछ नहीं क्योंकि मुकाबला के लिए सामने मजबूत प्रत्याशी ही नहीं। लिहाज़ा चुनाव प्रचार पूरे शहर बेरंग दिखाई दे रहा है।
सालों में आता है कमाई का मौका।
आम चुनाव विधानसभा और नगरीय निकाय चुनाव ऐसे मौके होते हैं। जब पोस्टर, बैनर ,झंडा, डंडे और कार्यकर्ताओं को अपना उत्तम प्रदर्शन करने का मौका मिलता है। लेकिन इंदौर में यह रंग बेरंग हो चुके हैं। सड़के सुनसान है ।चुनाव प्रचार के लिए भी कोई प्रत्याशी लोगों के कॉलोनी मोहल्ले और घरों तक आ रहा है। जबकि आम लोगों को उम्मीद होती है कि 5 साल में ही सही नेताजी हाथ जोड़ने जरूर आएंगे।
भाजपा की परीक्षा लेगा इंदौर का मतदाता ?
दरअसल 89 के बाद से पिछले 4 दशकों में इंदौर भाजपा का अवैध कील साबित हुआ है। जहां भाजपा का कार्यकर्ता प्रतिबद्ध रहा। बल्कि भाजपा का वोट बैंक भी प्रतिबद्ध रहा है। यही कारण है कि इंदौर में भाजपा प्रत्याशी की जीत 8 लाख वोटो के अंतर से होती रही है ।जो देश में एक बड़े मार्जिन के तौर पर देखा जाता है। लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी को अपने ही पक्ष में बिठा लेने के बाद अब यहां का मतदाता खुद को ठगा महसूस कर रहा है ।उसके सामने यह सवाल खड़ा है कि वह आखिर किस मकसद के लिए वोट डालने जाए। क्योंकि उसके मन में यह बात बैठ गई है कि उसके जाने ना जाने से नतीजे पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
गिर सकता है वोटिंग परसेंटेज ?
बढ़ सकता है नोटा का दबाव ।
देश में संभवत इंदौर देश की पहली ऐसी लोकसभा होगी। जहां मुख्य मुकाबला नोट और भाजपा के बीच होने जा रहा है कांग्रेस के प्रत्याशी के मैदान से बाहर होने के बाद अब कांग्रेस नोट का समर्थन कर रही है तो वहीं आम मतदाता या तो चुनाव से अलग छुट्टियों में बाहर जाने का मन बना चुका है या फिर नोट के जरिए मनमानी करने वालों को सबक सिखाने के मूड में है।
क्या हुआ अगर नोटा को मिले सर्वाधिक वोट ।
दरअसल नोटा को इंदौर में सर्वाधिक वोट मिले तो यह देश की पहली ऐसी लोकसभा बन जाएगी। जहां प्रधानमंत्री उम्मीदवार से ज्यादा नोटा को लेकर चर्चा रहेगी। जो अपने आप में एक इतिहास की तरह होगा। यही कारण है कि भाजपा खेमे में इन दोनों चिंता की लकीर है। बीजेपी आलाकमान साफ कर चुका है की वोटिंग परसेंटेज बढ़ाना है, लेकिन कहते हैं ना की कमान से निकला हुआ तीर वापस नहीं आता। भाजपा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। उसकी कमान से तीर निकल चुका। तीर वापस लाने में पार्टी जी जान से लगी है, लेकिन ऐसा होता कम नजर आ रहा है।
यह है आम मतदाता के सामने मुश्किलें ?
दरअसल इंदौर में गर्म चर्चाओं पर नजर डालें तो आम मतदाताओं के सामने यह मुश्किल है ।
कांग्रेस का प्रत्याशी न होने से एक तरफ हुआ मुकाबला ।
तेज धूप और लू की वजह से वोट डालने से कतरा रहे मतदाता।
राम मंदिर का मुद्दा भी नहीं आएगा काम ,क्योंकि कांग्रेस प्रत्याशी को भाजपा ने अपने पक्ष में बिठाया।
नोटा के जरिए सबक सिखा सकता है मतदाता ।
नोटा का इस्तेमाल ज्यादा हुआ तो बदल जाएंगे समीकरण।